Wednesday 21 May 2014

कैसे बनाये दाम्पत्य जीवन को सफल ? जानिए ! निःशुल्क उपचार "आचार्य विमल त्रिपाठी जी" द्वारा



 वैवाहिक जीवन सुखमय- शान्तिप्रद बनाने  हेतु :


भारतीय ज्योतिष पद्धति के अनुसार वैवाहिक मेलापक केवल परम्परा का निर्वहन नहीं है अपितु भावी दंपत्ति के सहज भाव , गुण- धर्म ,आचार- विचार, मधुर सम्बन्ध पारस्परिक व्यवहार के विषय में स्पष्ट जानकारी प्राप्त करना है|
जब तक समान आचार- विचार ,सम व्यवहार वाले वर एवं कन्या नहीं होगे, तब तक दांपत्य जीवन सुख मय नहीं हो सकता, क्योकि विवाह बाद ही, भावी दंपत्ति एक दुसरे के व्यवहार , रहन- सहन, तौर -तरीके आदि के विषय में जान पाते है| विवाह के पूर्व गहरे मित्र भी कभी कभी एक दुसरे के प्रति जानकारी प्राप्त कर पाने में अक्षम हो जाते है|


अतः इस घोर परिस्थिति में ज्योतिष शास्त्र की यह वैज्ञानिक पद्धति अटूट वरदान सिद्ध होती है|

ज्योतिष वैवाहिक मेलापक सारणी विचार :

वर  एवं  कन्या के जन्म कुंडली के आधार पर योनिकूट ,राशिकूट ( भृकुट मिलान) का स्कोर अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान रखता है| मिलान उत्तम होने पर ही वैवाहिक जीवन सुखमय ,समृद्धि पूर्ण होगा|
जन्म कुंडली में मंगल एवं शनि की स्थिति अत्यंत महत्वपूर्ण  स्थान रखते है, इन दोनों के शुभत्व के प्राप्त होने पर ही दंपत्ति के विचार मिलते है जीवन  में मिठास बनी रहती है|
लग्न लग्नेश की स्थिति संतान सुख के कारक बनते देखे जा सकते है, लग्न एवं लग्नेशाधिपति के निर्बल हो जाने की दशा में सन्तान सुख में बाधा एवं अंतर्कलह का कारण उपन्न हो जाता है|
प्रेम विवाह के ७५ % असफलता के कारण कालसर्प दोष ,मांगलिक दोष ,शनि दोष ,निर्बल सूर्य एवं बृहस्पति प्रायः देखे गए है|

विशिष्ट ज्योतिषीय परामर्श के द्वारा उत्तम मुहूर्त, शुभ विशुद्ध लग्न में वैदिक रीति से पाणिग्रहण संस्कार करना वैवाहिक जीवन को सुखद एवं समृद्धि वान बनाता है|

अशान्ति पूर्ण  वैवाहिक जीवन को शान्तिप्रद बनाने हेतु ज्योतिष शास्त्र  का अद्भुत ज्ञान रखने वाले दैवज्ञ से एक बार परामर्श अवश्य लेना चाहिए| 

" असाध्य रोग से उत्पन्न हुए घोर कष्टो से छुटकारा पाने हेतु अनुभवी वैध (डॉक्टर ) के पास जाने पर ही उपचार पाया जाना सम्भव है|" 

ठीक उसी प्रकार से बारम्बार दैवीय आपदा ,ग्रह -नक्षत्र के द्वारा उत्पन्न घोर संकट से छुटकारा पाने के लिए  समय रहते दैवज्ञ परामर्श अवश्य ले लेना चाहिए|
                                                             

                                                             भारतीय ज्योतिष संस्थान ( लखनऊ )                                                                      आचार्य विमल त्रिपाठी                                                                            ९३३५७१०१४४  

Saturday 22 February 2014

 

   कैसे करे रविवार के दिन

        सूर्य कि उपासना ?

सूर्य सदैव मार्गी एवं उदित रहने वाला ग्रह है क्षितिज के कारण अथवा पृथ्वी के अपनी ही धुरी पर भ्रमण करते रहने के के कारण सूर्य कही उदित और कही अस्त दृष्टि गोचर होता है। सूर्य के अस्त और उदय होने का वास्तविक कारण तो पृथ्वी के अपने धुरी पर घूमने के कारण हो है जिस लिए दिन और रात्रि का विधान है।
संक्रांति
सूर्य के एक राशि पर संक्रमण काल को ही संक्रांति कहते है सूर्य कि एक संक्रांति कि अवधि ३० दिनों कि होती है अर्थात एक माह तक सूर्य एक राशि में सचरण करता है इस प्रकार बारह माह में या एक वर्ष में सूर्य कि  बारह संक्रांति सिद्ध होती है सूर्य कि मिथुन कन्या धनु तथा मीन राशि वाली संक्रांति को "षडशित्यायन ", मेष तथा तुला राशि वाली संक्रांतियों को "विषुव",वृष सिंह वृश्चिक तथा कुम्भ राशि वाली संक्रांतियों को "विष्णु पद "कर्क राशि कि संक्रांति को याम्यायन तथा मकर राशि कि संक्रांति को "सौम्यायन" संज्ञाए दी गयी है
सूर्य को समस्त जीवो की आत्मा ,समस्त ग्रहो का महा अधिष्ठाता तथा सर्व शक्तिमान कहा गया है।
आप्राधावा पृथ्वी अन्तरिक्ष गुं  सूर्य आत्मा जगतस्त स्थूषश्च " कहे जाने  वाले मूल भावना है ।
सम्पूर्ण ग्रहो  में सूर्य -चंद्रमा को राजा कहते है चंद्रमा और सूर्य एक ही है। यदि  उत्तरायण में होते है तो सात दोषो का हनन करते है ।
जिस जातक कि जन्म कुंडली में सूर्य चन्द्र बलवान हो कर बैठे होते है तो जातक सुखी सम्पत्तिवान होकर कुल का वर्धक होता है अर्थात कुल के नाम को आगे बढ़ाता है ।

सूर्य चन्द्र यदि निर्बल हो कर जातक कि कुंडली में विधमान हो तो  कमजोर हृदय, हड्डी, शारीरिक -शक्ति, ललाट का तेज, आचरण, बौद्धिक विकास, धन, वैभव, धर्म- कर्म आदि में अवरोध उत्पन्न होता है।
पेट से संबंधित रोग , अजीर्ण ,भगंदर ,मधुमेह ,ज्वार पीड़ा ,अपेंडिक्स ,सर दर्द नेत्र विकार,अतिसार ,रोग से ग्रस्त  करता है। सूर्य प्रायः जातक के जीवन में वर्ष २० से २८ कि आयु में अपना शुभ अथवा अशुभ प्रभाव फल प्रदर्शित करता है ।
सूर्य कि महादशा कष्ट कारी सिद्ध हो कर जातक के लिए हानि पहुचाने का काम करती है । 

१- यदि सूर्य निर्बल हो कर लग्न भाव में स्थित हो तो स्त्री एवं  संतान को कष्ट व पित्त -वात  रोगी बनाने वाला होता  है । २- यदि सूर्य द्वितीय भाव में स्थित हो तो नेत्र विकार ,धन नष्ट तथा नौकरी में बाधक होता है \३-यदि सूर्य तृतीय भाव में स्थित हो तो भाई बहन के लिए विशेष बड़े भाई के लिए कष्ट कारी होता है \४-यदि सूर्य चतुर्थ भाव में स्थित हो तो राजभंग योग बनता है जिससे जीवकोपार्जन में क्षति होती है जातक चिंता ग्रस्त रहता है ५- यदि सूर्य पंचम भाव में हो तो जातक रोगी ,शीघ्र क्रोधित हो कर अपना अहित कर लेने वाला ,दुखी ,अल्प संतानो वाला होता है ६-यदि सूर्य षट्वे  भाव में हो तो मामा को घोर कष्ट देने वाला होता है । ७-यदि सूर्य सप्तम भाव में हो तो राज्य दंड भोगता है ,स्त्री के साथ क्लेश ,स्वास्थ को लेकर मारकेश बनता है ८-यदि सूर्य अष्टम भाव में हो तो जातक दुखी ,पित्त रोगी बुद्धि हीं हो जाता है । ९-यदि सूर्य नवम भाव में हो तो भाग्य  की हानि होती है धर्म का विरोध करने वाला नास्तिक होता है । और भाग्य भी उसका साथ नहीं देता है । १०-यदि सूर्य दसम भाव में हो तो पिता पक्ष कि हानि करने वाला पिता से विद्रोह करने वाला कर्म से हीन हो कर विचरण करने वाला होता है ११- यदि सूर्य एकादस भाव में हो तो आय के अनेको श्रोत बनते है स्थायी आय का साधन नहीं होता है और संतान को लेकर चिंतित रहेगा १२-यदि सूर्य द्वादस भाव में है तो दाहिने नेत्र में विकार होगा और अलसी प्रवित्त का होगा,पैतृक सम्पत्ति को नष्ट करने वाला होगा \


सूर्य पीड़ा निवारण के लिए 

(क)- प्रत्येक दिन विशेष कर रवि वार के दिन सूर्य को हल्दी दूर्वा चंदन गौ दूध मिश्रित अर्घ दे ।
(ख)-माणिक्य का दान करे । ३  रत्ती का माणिक्य और ५ रत्ती स्वर्ण कि अंगूठी में बनवाए। पंचोपचार पूजन      कर दान करे ।
(ग)- सूर्य के वैदिक मन्त्र का जाप अनुष्ठान विद्वानो द्वारा सम्पन्न करवाये ।
(घ)-उपरोक्त उपयो के कर पाने के  अक्षम स्थति में रविवार का व्रत धरन करे और आदित्य हृदय स्त्रोत का पाठ करे ।

अधिक जानकारी हेतु आचार्य विमल त्रिपाठी जी से निःशुल्क परामर्श ले सकते है।                                                               आचार्य विमल त्रिपाठी                                                             भरतीय ज्योतिष संस्थान                                                                       लखनऊ  









Saturday 15 February 2014

ग्रह क्या है ?

                 ग्रह क्या है ?

रात्रि के समय आकाश मंडल में करोडो ज्योति पिण्ड चमकते हुए दिखायी देते है| इनमे से कुछ सचल तथा कुछ अचल होते है| जो ज्योति पिण्ड अपने स्थान पर प्रायः बने रहते है, उन्हें तारा सितारा अथवा स्टार कहते है| परन्तु जो तारापिण्ड पूर्वाभिमुख हो कर, विभिन्न नक्षत्र पुञ्जों में भ्रमण करते हुए सूर्य कि निरंतर परिक्रमा करते रहते है,उन्हें ग्रह सितारा अथवा प्लेनेट्स कहा जाता है|
सौर मंडल में ग्रह-नक्षत्र कि उपस्थिति के सम्बन्ध में आधुनिक वैज्ञानिको का मत है कि आज से ३ अरब वर्ष पूर्व अनंत शून्य आकाश मंडल में एक प्रचण्ड सूर्य था| कुछ समय पश्चात एक दूसरा प्रचण्ड सूर्य किसी अज्ञात स्थान से भ्रमण करते हुए वर्त्तमान दिखाई देने वाले सूर्य के अत्यंत समीप से निकल गया| उक्त प्रचंड सूर्य के आकर्षण अथवा किसी कोने के टकराव से वर्त्तमान सूर्य के अग्निमय वातावरण में एक प्रचण्ड तूफ़ान जैसा आ गया, जिसके प्रभाव से वर्त्तमान सूर्य के कई प्रकाश पिण्ड अलग हो कर इधर उधर बिखर गए| बाद में यही प्रकाशवान पिण्ड ग्रह में परिवर्तित हो कर वर्त्तमान सूर्य के परिक्रमा करने लगे| पृथ्वी भी अन्य ग्रहो कि भाँति ही एक ग्रह है और सूर्य की परिक्रमा लगाती रहती है|
भारतीय ज्योतिष के मतानुसार समस्त बृह्माण्ड,जो जैसा दिखाई देता है ठीक उसी प्रकार उत्पन्न हुवा है|
ब्रह्मपुराण में लिखा है :
"चैत्रे मासि जगद् ब्रह्मा सवर्ण प्रथमेअवनि ।
शुक्ल पक्ष समग्रंतत तदा सूर्योदये सति ॥
प्रवर्तया मास तदा कालस्य गणनामपि| 
गहनना गानृ तू न् मासान वत्सारांवत्साधिपात||" 
चैत्र शुक्ल पक्ष कि प्रतिपदा रविवार के दिन प्रातः सूर्योदय के समय अश्वनी नक्षत्र तथा मेष राशि के उदय काल में सभी ग्रह थे ,उसी समय ब्रह्मा ने सृष्टि कि रचना की तथा उसी समय से सभी ग्रहों ने अपनी कक्षा में भ्रमण करना प्रारम्भ कर दिया विश्व के कार्यारम्भ के साथ ही दिन ,वार ,पक्ष ,मास,ऋतू ,अयन ,वर्ष ,युग मन्वन्तर का आ रम्भ हुवा| काल गणना का सूत्र पात भी यही से हुवा|
भारतीय ज्योतिष में सात ग्रहो को मान्यता प्राप्त है| शनि कि कक्षा सबसे ऊपर है| उसके नीचे बृहस्पत (गुरु )उसके नीचे मंगल उसके नीचे सूर्य उसके नीचे शुक्र उसके नीचे बुध उसके नीचे चंद्रमा की कक्षा है|\
राहु केतु मात्र छाया ग्रह कहे गये है|
इस प्रकार ग्रहो की संख्या कुल नव ग्रहो की हो जाती है|
पापी ग्रहो के प्रभाव से सौम्य गृह भी पापत्व को प्राप्त हो जाते है| इस प्रकार पापी ग्रह अशुभ फल और सौम्य ग्रह शुभ फल देने वाले सिद्ध होते है|
अधिक जानकारी के लिए आचार्य विमल त्रिपाठी जी से आप स्वयं संपर्क करे|
 ग्रह क्या है ?
रात्रि के समय आकाश मंडल में करोडो ज्योति पिण्ड चमकते हुए दिखायी देते है| इनमे से कुछ सचल तथा कुछ अचल होते है| जो ज्योति पिण्ड अपने  स्थान पर प्रायः बने रहते है, उन्हें तारा सितारा अथवा स्टार कहते है| परन्तु जो तारापिण्ड पूर्वाभिमुख हो कर, विभिन्न नक्षत्र पुञ्जों में भ्रमण करते हुए सूर्य कि निरंतर परिक्रमा करते रहते है,उन्हें ग्रह सितारा  अथवा प्लेनेट्स कहा जाता है|
सौर मंडल में ग्रह-नक्षत्र कि उपस्थिति के सम्बन्ध में आधुनिक वैज्ञानिको  का मत है कि आज से  ३ अरब वर्ष पूर्व अनंत शून्य आकाश मंडल में एक प्रचण्ड सूर्य था|  कुछ समय पश्चात एक दूसरा प्रचण्ड सूर्य किसी अज्ञात स्थान से भ्रमण करते हुए वर्त्तमान दिखाई देने वाले सूर्य  के अत्यंत समीप से निकल गया| उक्त प्रचंड सूर्य के आकर्षण अथवा किसी कोने के टकराव से वर्त्तमान सूर्य के अग्निमय  वातावरण में एक प्रचण्ड तूफ़ान जैसा आ गया, जिसके प्रभाव से वर्त्तमान सूर्य के कई प्रकाश पिण्ड अलग हो कर इधर उधर बिखर गए| बाद में यही प्रकाशवान पिण्ड ग्रह में परिवर्तित हो कर वर्त्तमान सूर्य के परिक्रमा करने लगे| पृथ्वी भी अन्य ग्रहो कि भाँति ही एक ग्रह है और सूर्य की परिक्रमा लगाती रहती है|
भारतीय ज्योतिष के मतानुसार समस्त बृह्माण्ड,जो जैसा दिखाई देता है ठीक उसी प्रकार उत्पन्न हुवा है|
ब्रह्मपुराण में लिखा है :
" चैत्रे मासि जगद् ब्रह्मा सवर्ण प्रथमेअवनि ।
शुक्ल पक्ष समग्रंतत तदा सूर्योदये सति ॥
प्रवर्तया मास तदा कालस्य गणनामपि|
गहनना गानृ तू न् मासान वत्सारांवत्साधिपात||
चैत्र शुक्ल पक्ष कि प्रतिपदा रविवार के दिन प्रातः सूर्योदय के समय अश्वनी नक्षत्र तथा मेष राशि के उदय काल  में सभी ग्रह थे  ,उसी समय ब्रह्मा ने सृष्टि कि रचना की तथा उसी समय से सभी ग्रहों ने अपनी कक्षा में भ्रमण करना प्रारम्भ कर दिया विश्व के कार्यारम्भ के साथ ही दिन ,वार ,पक्ष ,मास,ऋतू ,अयन ,वर्ष ,युग मन्वन्तर का आ रम्भ हुवा| काल गणना का सूत्र पात भी यही से हुवा|
भारतीय ज्योतिष में सात ग्रहो को मान्यता प्राप्त है| शनि कि कक्षा सबसे ऊपर है| उसके नीचे बृहस्पत (गुरु )उसके नीचे मंगल उसके नीचे सूर्य उसके नीचे शुक्र उसके नीचे बुध उसके नीचे चंद्रमा की कक्षा है|\
राहु केतु मात्र छाया ग्रह कहे गये है|
इस प्रकार ग्रहो की संख्या कुल नव ग्रहो की हो जाती है|
पापी ग्रहो के प्रभाव से सौम्य गृह भी पापत्व को प्राप्त हो जाते है| इस प्रकार पापी ग्रह अशुभ फल और सौम्य ग्रह शुभ फल देने वाले सिद्ध होते है|
अधिक जानकारी के लिए आचार्य विमल त्रिपाठी जी से आप स्वयं संपर्क करे|

Friday 20 December 2013

ज्योतिष शास्त्र के अंतर्गत वैवाहिक जीवन का महवत्वपूर्ण स्थान होता है । मांगलिक दोष के कारण आप निराश :                                                ...

ज्योतिष शास्त्र के अंतर्गत वैवाहिक जीवन का महवत्वपूर्ण स्थान होता है । मांगलिक दोष के कारण आप निराश :

                                             
 ...
:                                                                   वैवाहिक जीवन में मंगल दोष का प्रभाव  मंगल उष्ण प्रकृति का ग्रह है....


                                             
                    वैवाहिक जीवन में मंगल दोष का प्रभाव 

मंगल उष्ण प्रकृति का ग्रह है.इसे पाप ग्रह माना जाता है. विवाह और वैवाहिक जीवन में मंगल का अशुभ प्रभाव सबसे अधिक दिखाई देता है. वर एवं कन्या दोनों में से कोई एक के प्रबल मांगलिक होने पर जीवन में आपसी प्रेम में मंगल गृह बाधक बन जाता है । 

मंगल दोष जिसे मंगली के नाम से जाना जाता है इसके कारण कई स्त्री और पुरूष आजीवन अविवाहित ही रह जाते हैं.इस दोष को गहराई से समझना आवश्यक है ताकि इसका भय दूर हो सके.

प्रबल मंगली दोष भृगु संघिता  ज्योतिष के  आधार पर मंगल को लग्न, द्वितीय, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम और द्वादश भाव में दोष पूर्ण माना जाता है.इन भावो में उपस्थित मंगल वैवाहिक जीवन के लिए अनिष्टकारक कहा गया है.जन्म कुण्डली में इन पांचों भावों में मंगल के साथ जितने क्रूर ग्रह बैठे हों मंगल उतना ही दोषपूर्ण होता है जैसे दो क्रूर होने पर दोगुना, चार हों तो चार चार गुणा.मंगल का पाप प्रभाव अलग अलग तरीके से पांचों भाव में दृष्टिगत होता है जैसे:

लग्न (प्रथम )भाव में मंगल 

लग्न भाव से व्यक्ति का शरीर, स्वास्थ्य, व्यक्तित्व का विचार किया जाता है.लग्न भाव में मंगल होने से व्यक्ति उग्र एवं क्रोधी होता है.यह मंगल हठी और आक्रमक भी बनाता है.इस भाव में उपस्थित मंगल की चतुर्थ दृष्टि सुख सुख स्थान पर होने से गृहस्थ सुख में कमी आती है.सप्तम दृष्टि जीवन साथी के स्थान पर होने से पति पत्नी में विरोधाभास एवं दूरी बनी रहती है.अष्टम भाव पर मंगल की पूर्ण दृष्टि जीवनसाथी के लिए संकट कारक होता है.

द्वितीय भाव में मंगल 

फल दीपिका नामक ग्रंथ में द्वितीय भावस्थ मंगल को भी मंगली दोष से पीड़ित बताया गया है. द्वितीय भाव में युक्त मंगल मार्केश बनाता है ,यह भाव कुटुम्ब और धन का  नाश करने वाला  होता है.यह मंगल परिवार और सगे सम्बन्धियों से विरोध पैदा करता है.परिवार में तनाव के कारण पति पत्नी में दूरियां लाता है.इस भाव का मंगल पंचम भाव, अष्टम भाव एवं नवम भाव को देखता है.मंगल की इन भावों में दृष्टि से संतान पक्ष पर विपरीत प्रभाव होता है. जिस कारण संतानोत्पत्ति में बाधा पहुँचती है ।  भाग्य का फल मंदा होता है.

चतुर्थ भाव में मंगल 

चतुर्थ स्थान में बैठा मंगल सप्तम, दशम एवं एकादश भाव को देखता है.यह मंगल स्थायी सम्पत्ति देता है परंतु गृहस्थ जीवन को कष्टमय बना देता है.मंगल की दृष्टि जीवनसाथी के गृह में होने से वैचारिक मतभेद बना रहता है.मतभेद एवं आपसी प्रेम का अभाव होने के कारण जीवनसाथी के सुख में कमी लाता है.मंगली दोष के कारण पति पत्नी के बीच दूरियां बढ़ जाती है और दोष निवारण नहीं होने पर अलगाव भी हो सकता है.यह मंगल जीवनसाथी को संकट में नहीं डालता है.

सप्तम भाव में मंगल

सप्तम भाव जीवनसाथी का घर होता है.इस भाव में बैठा मंगल वैवाहिक जीवन के लिए सर्वाधिक दोषपूर्ण माना जाता है.इस भाव में मंगली दोष होने से जीवनसाथी के स्वास्थ्य में उतार चढ़ाव बना रहता है.जीवनसाथी उग्र एवं क्रोधी स्वभाव का होता है.यह मंगल लग्न स्थान, धन स्थान एवं कर्म स्थान पर पूर्ण दृष्टि डालता है.मंगल की दृष्टि के कारण आर्थिक संकट, व्यवसाय एवं रोजगार में हानि एवं दुर्घटना की संभावना बनती है.यह मंगल चारित्रिक दोष उत्पन्न करता है एवं विवाहेत्तर सम्बन्ध भी बनाता है.संतान के संदर्भ में भी यह कष्टकारी होता है.मंगल के अशुभ प्रभाव के कारण पति पत्नी में दूरियां बढ़ती है जिसके कारण रिश्ते बिखरने लगते हैं.जन्मांग में अगर मंगल इस भाव में मंगली दोष से पीड़ित है तो इसका उपचार कर लेना चाहिए.

अष्टम भाव में मंगल 

अष्टम स्थान दुख, कष्ट, संकट एवं आयु का घर होता है.इस भाव में मंगल वैवाहिक जीवन के सुख को निगल लेता है.अष्टमस्थ मंगल मानसिक पीड़ा एवं कष्ट प्रदान करने वाला होता है.जीवनसाथी के सुख में बाधक होता है.धन भाव में इसकी दृष्टि होने से धन की हानि और आर्थिक कष्ट होता है.रोग के कारण दाम्पत्य सुख का अभाव होता है.ज्योतिष विधान के अनुसार इस भाव में बैठा अमंलकारी मंगल शुभ ग्रहों को भी शुभत्व देने से रोकता है.इस भाव में मंगल अगर वृष, कन्या अथवा मकर राशि का होता है तो इसकी अशुभता में कुछ कमी आती है.मकर राशि का मंगल होने से यह संतान सम्बन्धी कष्ट देता है।

द्वादश भाव में मंगल 

कुण्डली का द्वादश भाव शैय्या सुख, भोग, निद्रा, यात्रा और व्यय का स्थान होता है.इस भाव में मंगल की उपस्थिति से मंगली दोष लगता है.इस दोष के कारण पति पत्नी के सम्बन्ध में प्रेम व सामंजस्य का अभाव होता है.धन की कमी के कारण पारिवारिक जीवन में परेशानियां आती हैं.व्यक्ति में काम की भावना प्रबल रहती है.अगर ग्रहों का शुभ प्रभाव नहीं हो तो व्यक्ति में चारित्रिक दोष भी हो सकता है..भावावेश में आकर जीवनसाथी को नुकसान भी पहुंचा सकते हैं.इनमें गुप्त रोग व रक्त सम्बन्धी दोष की भी संभावना रहती है.

यदि आप अपनी  कुंडलियों का मिलान करवाना चाहते हैं और यदि अपने पारिवारिक जीवन को सुख मय बनाना चाहते है,तो संपर्क करिये ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

                                                                             
     भारतीय ज्योतिष संस्थान                                                                 आचार्य विमल त्रिपाठी  
           प्रतापगढ़  वाले                                                                          भृगु संघिता विश्लेषक
     lucknow                                                                                       मो बा० = 9335710144